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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

अबो॑धि जा॒र उ॒षसा॑मु॒पस्था॒द्धोता॑ म॒न्द्रः क॒वित॑मः पाव॒कः। दधा॑ति के॒तुमु॒भय॑स्य ज॒न्तोर्ह॒व्या दे॒वेषु॒ द्रवि॑णं सु॒कृत्सु॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abodhi jāra uṣasām upasthād dhotā mandraḥ kavitamaḥ pāvakaḥ | dadhāti ketum ubhayasya jantor havyā deveṣu draviṇaṁ sukṛtsu ||

पद पाठ

अबो॑धि। जा॒रः। उ॒षसा॑म्। उ॒पऽस्था॑त्। होता॑। म॒न्द्रः। क॒विऽत॑मः। पा॒व॒कः। दधा॑ति। के॒तुम्। उ॒भय॑स्य। ज॒न्तोः। ह॒व्या। दे॒वेषु॑। द्रवि॑णम् सु॒कृत्ऽसु॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:9» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले नवमे सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में फिर कौन विद्वान् सेवने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (जारः) रात्रि का नाश करनेवाला सूर्य (उषसाम्) प्रातःकाल की वेलाओं के (उपस्थात्) समीप से (उभयस्य) इस लोक परलोक में जाने आनेवाले (जन्तोः) जीवात्मा के (हव्या) होमने योग्य वस्तुओं को (केतुम्) बुद्धि को और (द्रविणम्) धन वा बल को (देवेषु) पृथिव्यादि वा विद्वानों में (दधाति) धारण करता है तथा (होता) दानशील (मन्द्रः) आनन्दाता (कवितमः) अति प्रवीण (पावकः) पवित्रकर्ता विद्वान् जीव के ग्राह्य वस्तुओं को (सुकृत्सु) पुण्यात्मा विद्वानों में धन और बुद्धि का धारणकरता स्वयं अज्ञानियों को (अबोधि) बोध कराता, उसी अध्यापक विद्वान् की निरन्तर सेवा करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् जैसे रात्रि को सूर्य निवारण कर प्रकाश को उत्पन्न करता, वैसे अविद्या का निवारण करके विद्या को प्रकट करते हैं, वे जैसे धर्मात्मा न्यायाधीश राजा पुण्यात्माओं में प्रेम धारण करता है, वैसे शमदमादि युक्त श्रोताओं में प्रीति को विधान करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः के विद्वांसः सेवनीया इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा रात्रेर्जारः सूर्य उषसामुपस्थादुभयस्य जन्तोर्हव्या केतुं द्रविणञ्च देवेषु दधाति तथा होता मन्द्रः कवितमः पावको विद्वान् जन्तोर्हव्या सुकृत्सु देवेषु द्रविणं केतुञ्च दधाति स्वयमबोध्यज्ञान् बोधयति तमेवाध्यापकं विद्वांसं सततं सेवध्वम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अबोधि) बोधयति (जारः) रात्रेर्जरयिता सूर्यः (उषसाम्) प्रातर्वेलानाम् (उपस्थात्) समीपात् (होता) दाता (मन्द्रः) आनन्दयिता (कवितमः) विद्वत्तमः (पावकः) पवित्रीकरः (दधाति) (केतुम्) प्रज्ञाम् (उभयस्य) इहाऽमुत्र भवस्य (जन्तोः) जीवस्य (हव्या) होतुमर्हाणि वस्तूनि (देवेषु) पृथिव्यादिषु विद्वत्सु वा (द्रविणम्) धनं बलं वा (सुकृत्सु) पुण्याऽऽत्मसु ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसो यथा सूर्यो रात्रिं निवार्य्य प्रकाशं जनयति तथाऽविद्यां निवार्य्य विद्यां जनयन्ति ते यथा धार्मिको न्यायाधीशो राजा पुण्यात्मसु प्रेम दधाति तथा शमदमादियुक्तेषु श्रोतृषु प्रीतिं विदध्युः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नीच्या दृष्टान्ताने विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य रात्रीचे निवारण करून प्रकाश उत्पन्न करतो तसे विद्वान अविद्येचे निवारण करून विद्या प्रकट करतात. जसे धर्मात्मा न्यायाधीश राजा पुण्यात्म्यांमध्ये प्रेम उत्पन्न करतो तसे शम, दम इत्यादीयुक्त श्रोत्यांमध्ये प्रेम उत्पन्न करावे. ॥ १ ॥